शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

चंद शेर

डूबी हैं मेरी उँगलियाँ मेरे ही लहू में,
ये कांच के टुकड़े पे भरोसे की सजा है।
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तबाह करने के हमको थे और भी रास्ते,
उन्हें न जाने मोहब्बत का क्यों ख्याल आया।
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नज़रों ने खता की थी, नजरो को सजा मिलती,
दिल ने क्यूँ, यूँ दिन रात तड़पने की सजा पायी।
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एक नफरत ही है जिसे दुनिया लम्हों में पहचान लेती है,
वरना मोहब्बत का पता लगने में तो ज़माने बीत जाते हैं।
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मेरी दीवानगी

मेरी खामोशियों में भी फ़साना ढूँढ लेती हैं,
बड़ी शातिर है ये दुनिया बहाना ढूँढ लेती हैं ,

हकीकत जिद किये बैठे है चकनाचूर करने को,
मगर हर आँख फिर सपना सुहाना ढूँढ लेती हैं ,

उठाती है जो खतरा हर कदम पे डूब जाने का,
वही कोशिश समंदर में खजाना ढूँढ लेती हैं,

जुनूँ मंजिल का, राहों में बचाता हैं भटकने से,
मेरी दीवानगी अपना ठिकाना ढूँढ लेती हैं।